प्रभात इंडिया न्यूज़ अजय गुप्ता भितहा/मधुबनी
गुरु की महिमा का पूरा वर्णन कोई नहीं कर सकता। गुरु की महिमा भगवान से भी अधिक है। शास्त्रों में गुरु की बहुत महिमा बताई गई है। परंतु वह महिमा सच्चाई की है, दंभ -पाखंड की नहीं। आजकल दंभ- पाखंड बहुत हो गया है और बढ़ता ही जा रहा है। आजकल शिष्यों की अपने गुरु के प्रति जैसी श्रद्धा देखने में आती है,वैसा गुरु स्वयं होता नहीं।
बहुतायत देखा गया है ,गुरु स्वयं ही अपनी महिमा का बखान करते हैं। वास्तव में गुरु की महिमा शिष्य की दृष्टि से है, गुरु की दृष्टि से नहीं। एक गुरु की दृष्टि होती है, एक शिष्य की दृष्टि होती है और एक तीसरे आदमी की दृष्टि होती है ।गुरु की दृष्टि यह होती है कि मैंने कुछ नहीं किया ,जो स्वत: स्वाभाविक वास्तविक तत्व है, उसकी तरफ शिष्य की दृष्टि करा दी। तात्पर्य यह है कि मैं उसी के स्वरूप का उसी को बोध कराया है ।अपने पास से उसको कुछ दिया ही नहीं।
शिष्य की दृष्टि यह होती है कि गुरु ने मुझको सब कुछ दे दिया ।जो कुछ हुआ है सब गुरु की ही कृपा से हुआ है। तीसरे की दृष्टि यह होती है कि शिष्य को श्रद्धा से तत्वबोध हुआ है।
असली महिमा उस गुरु की है जिसने गोविंद से मिला दिया है। इस तरह से गुरु ही मानव को नया जीवन देता है। माता-पिता जन्मदाता के रूप में पूज्यनीय हैं!लेकिन शिष्य को विद्या संपन्न करके धर्म योद्धा बनाने का दायित्व निभाने वाला गुरु वास्तव में पूज्यनीय है !गुरु ही जीवन संग्राम में शिष्य को शून्य से शिखर तक ले जाता है ।गुरु पूजा करने वाला शिष्य हर अवसर पर विजेता बनता है। मां- बाप, भाई ऐसे गुरु हैं जो कभी दक्षिणा नहीं लेते और बदले में जीवन भर काम आने वाला ज्ञान देते हैं। जिससे समाज में शिष्य एक आदर्श जीवन जीने का ढंग अनुशासन पूर्वकअपनाता है।